
अररिया के जयनगर के दक्षिण कालिका मंदिर में सबकी पूरी होती हैं मुरादें
भरगामा प्रखंड के जयनगर गांव स्थित दक्षिण कालिका मंदिर की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है । गौरवशाली इतिसास को संजोये इस काली मंदिर मे 350 वर्षों से अधिक समय से पूजा-अर्चना होती आ रही है । बुजुर्गों के अनुसार रामकृष्ण परंमहंस और महिषि संत लक्ष्मीनाथ गोसाई की अगुवाई में पूजा शुरू कराने का श्रेय गांव के बबआ झा को जाता है। ऐसी मान्यता है कि जिसने भी सच्चे मन से मां की दरबार मे अपनी मुरादे लेकर आया, सबकी मांगे पूरी हुई। इतना ही नही इस मंदिर में पूजा करने के दौरान श्रद्धालुओ को असीम सुख व सकून की अनुभूति होती है । प्रखंड मुख्यालय से महज दस किलोमीटर दूरी पर जयनगर गांव अवस्थित इस मंदिर में यूं तो सालो भर श्रद्धालुओं का आना जाना लगा रहता है परंतु अमावस्या की रात दूर-दूर से श्रद्धालु मनोकामना के लिए यहां पहुंचते । लोगों का ऐसा मानना है कि यहा मांगी गयी मन्नते अवश्य पूरी होती है। यही कारण है कि दीपावली की रात में इस मंदिर मे उमडी भीड़, लगा मेला व सजावट देखने लायक होती है। उस रात श्यामा पूजा के बाद हजारों छागरो की बलि दी जाती है। पूर्व में तो यहा सैकडो पाडा को भी बलि दी जाती थी। पर पिछले साल से बलि के लिए आएं सभी पाडा का कान काटकर छोड दिया जाता है । मन्नते पूरी होने पर यहा माता को पाठा का बलि देकर पूजा अर्चना करते हैं । इस दक्षिण कालिका मंदिर का वर्मन एक ताम्र पत्र मे लिख कर किया हुआ है।
16वीं शताब्दी से हो रही है पूजा: मंदिर के पुजारी पंडित ताराकांत झा ने बताया कि वे इस मंदिर में पिछले 50 वर्षों से पूजा करा रहे है। इस मंदिर के संबंध में उन्हें 350 वर्षों तक के इतिहास की जानकारी है । लेकिन उन्होंने बताया कि उनके पिता स्व. वैद्यनाथ झा बताते थे कि इस मंदिर की स्थापना 16वीं शताब्दी में हुई है । उस समय से मां काली की पूजा होते आ रही है । क्योकि ताम्रपत्र मे मंदिर का इतिहास की लिखावट 16वीं शताब्दी की बताई जा रही है। उन्होंने बताया कि फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जहां घास फूस के घरों में पूजा होती थी वही अब पक्का मंदिर में आराधना होती है। उन्होंने बताया करीब 60 वर्ष पूर्व घास फूस को हटाकर टीन की छतरी के नीचे पूजा होती थी ।
1985 में मंदिर का हुआ जीर्णोद्धार: ग्रामीणों ने बताया 1985 मे इस मंदिर को भव्य स्वरूप दिया गया । तब से प्रगति के पथ पर है। मंदिर जीर्णोद्धार में बासा के तत्कालीन अध्यक्ष वजिन्द्र नारायण सिंह की सहभागिता सराहनीय योग रही है । हालांकि मंदिर कमेटी के लोगों ने बताया वजिन्द्र नारायण सिंह के अलावे गांव के अन्य हर व्यक्ति की महत्वपूर्ण भागीदारी है।
मां काली ने दी थी स्वप्न: जिस समय कोलकाता में हाईकोर्ट चलता था उस दौरान जयनगर गांव के बबुआ झा नामक व्यक्ति कोर्ट करने कलकत्ता जाते थे । उस वक्त इस गाव होकर कोशी नदी वहती थी । भादो मास मे कोशी का पानी से गांव बासी तबाह हो जाते थे । ग्रामीणों के मुताबिक कलकत्ता में ही बबुआ झा को काली मां ने स्वप्न दी कि वे गांव में दक्षिण काली की पूजा अर्चना शुरू करें । इसके बाद कलकत्ता स्थित दक्षिणेश्वरी काली मंदिर से ही मूर्ति लाकर रामकृष्ण परमहंस और महर्षि के संत लक्ष्मीनाथ गोसाई के सानिध्य मे पिण्डी के अन्दर मूर्ति को डालकर पूजा शुरू की गई । बताया जाता है कि कोशी के रौद्र रूप को लेकर काली की पूजा शुरू हुआ। तब से कोशी अपनी धारा बदल ली । तब से आजतक इस मंदिर मे निर्वाध रूप से पूजा होती आ रही है।
स्रोत-हिन्दुस्तान