परिचय: शाही लीची का नया रूप
बिहार का मुजफ्फरपुर हमेशा से अपनी शाही लीची के लिए मशहूर रहा है। इसकी मिठास, सुगंध और स्वाद ने इसे अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है। लेकिन अब यही लीची सिर्फ खाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कला, संस्कृति और रोजगार का जरिया भी बन गई है।
यह संभव हुआ है ‘लीचीपुरम अभियान’ के जरिए, जिसके अंतर्गत स्थानीय महिलाएं साड़ियों, पर्स, बेडशीट, छाते, गमछे, पाग और सजावटी सामान पर हाथ से लीची की डिजाइन बना रही हैं। इन उत्पादों की डिमांड न केवल बिहार और भारत में, बल्कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्रिटेन जैसे देशों तक बढ़ गई है।
महिलाओं का हुनर और नई पहचान
मुस्कान केसरी, नीतू तुलस्यान, श्वेता श्रीवास्तव और रंजना झा जैसी महिलाएं इस अभियान की अग्रणी हैं। ये महिलाएं पहले केवल घरेलू कार्यों तक सीमित थीं, लेकिन अब अपने हुनर से न सिर्फ़ आर्थिक आत्मनिर्भरता हासिल कर रही हैं, बल्कि मुजफ्फरपुर की पहचान को भी नई ऊँचाइयों तक पहुँचा रही हैं।
मुस्कान केसरी कहती हैं –
“पहले लोग इस कला के बारे में उतने जागरूक नहीं थे। लेकिन अब लोग गिफ्ट आइटम, साड़ी, पर्स और सजावटी सामान पर लीची डिजाइन देखकर बहुत खुश होते हैं। हमें अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है और आमदनी भी बढ़ी है।”
आय और रोजगार: 25 हजार से डेढ़ लाख तक
इस अभियान से जुड़ी महिलाएं अब हर महीने ₹25,000 से लेकर ₹1,50,000 तक की कमाई कर रही हैं।
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साड़ी की कीमत: ₹1,500 से लेकर ₹25,000 तक
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बेडशीट: ₹400 से ₹6,000 तक
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पर्स: ₹300 से ₹1,500 तक
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छाता: ₹500 से ऊपर
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गिफ्ट आइटम: ₹20 से ₹300 तक
इससे महिलाओं को न केवल घर की जिम्मेदारियों को निभाने में मदद मिल रही है, बल्कि बच्चों की पढ़ाई और भविष्य सुरक्षित करने का भी अवसर मिल रहा है।
विदेशों तक डिमांड
लीची डिजाइन वाली ये साड़ियां और अन्य उत्पाद अब दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे बड़े शहरों में बिक रहे हैं। इसके अलावा, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्रिटेन तक से ऑर्डर आ रहे हैं।
यह इस बात का प्रमाण है कि स्थानीय कला और परंपरा को अगर सही दिशा मिले तो वह अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बन सकती है।
महिलाओं की कहानियाँ
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नीतू तुलस्यान (सरैयागंज): लीची डिजाइन वाली साड़ी और चादर बनाती हैं। उनकी मासिक आय लाख रुपये से अधिक है। साथ ही वे समाज सेवा में भी सक्रिय हैं और अपनी संस्था ‘ज्ञानदीप’ के जरिए 100 बच्चियों को मुफ्त शिक्षा देती हैं।
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श्वेता श्रीवास्तव (बालूघाट): साड़ी, पर्स, बेडशीट और पर्दों पर लीची डिजाइन करती हैं। उन्हें लगातार दिल्ली और लखनऊ से ऑर्डर मिल रहे हैं।
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रंजना झा (शेरपुर): पाग और चादर पर लीची डिजाइन बनाती हैं। पाग जब लीची डिजाइन से सजता है तो उसकी खूबसूरती और बढ़ जाती है।
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मौनीता श्रीवास्तव: कचरे से गिफ्ट आइटम तैयार करती हैं और उस पर लीची डिजाइन बनाकर पर्यावरण संरक्षण से भी जुड़ रही हैं।
पर्यावरण और सांस्कृतिक जुड़ाव
यह अभियान केवल कला और रोजगार तक सीमित नहीं है। पर्यावरणविद् सुरेश गुप्ता ने इसे एक सांस्कृतिक और पर्यावरणीय आंदोलन बना दिया है।
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3 जून को बाबा गरीबनाथ को लीची का गुलदस्ता अर्पित कर अभियान की शुरुआत हुई थी।
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उद्देश्य है कि लोग लीची के महत्व को समझें और कट रहे लीची के पेड़ों को बचाया जाए।
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सांस्कृतिक कार्यक्रमों, गीत और कविताओं के जरिए लीची को जन-जन तक पहुँचाने की कोशिश हो रही है।
सुरेश गुप्ता कहते हैं –
“मुजफ्फरपुर की पहचान लीची से है। हमने इसे लीचीपुरम नाम दिया है। अगर सरकारी सहयोग मिले तो इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रांड बनाया जा सकता है।”
विशेषज्ञों की राय और भविष्य की संभावनाएँ
विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले समय में ‘लीचीपुरम’ को बिहार सरकार की ODOP (One District One Product) योजना से जोड़कर इसे अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बनाया जा सकता है।
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इससे न केवल महिलाओं को बड़ा बाजार मिलेगा, बल्कि बिहार की शाही लीची को भी एक ग्लोबल ब्रांडिंग मिलेगी।
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आत्मनिर्भर बिहार और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में यह अभियान महिला सशक्तिकरण का रोल मॉडल बन सकता है।
निष्कर्ष
मुजफ्फरपुर की शाही लीची अब सिर्फ एक फल नहीं रही, बल्कि यह कला, संस्कृति, रोजगार और पहचान का प्रतीक बन चुकी है।
‘लीचीपुरम अभियान’ से जुड़ी महिलाएं साबित कर रही हैं कि यदि जुनून और रचनात्मकता हो तो परंपरा को आधुनिकता से जोड़कर रोजगार का साधन बनाया जा सकता है।
आज उनकी बनाई साड़ियां ₹25 हजार तक बिक रही हैं और विदेशों तक ऑर्डर मिल रहे हैं।
यह अभियान आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा है कि स्थानीय संसाधनों को सही दिशा देकर कैसे उन्हें वैश्विक स्तर तक पहुँचाया जा सकता है।



