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पूरे कैंपस में योगी और अब धीरे-धीरे कारोबारी मीडिया में जेएनयू के योगी आदित्यनाथ

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पूरे कैंपस में योगी और अब धीरे-धीरे कारोबारी मीडिया में जेएनयू के योगी आदित्यनाथ

पूरे कैंपस में योगी और अब धीरे-धीरे कारोबारी मीडिया में जेएनयू के योगी आदित्यनाथ नाम से मशहूर भगवाधारी राघवेन्द्र मिश्र उत्तर प्रदेश के सोनभद्र इलाके के एक गरीब किसान परिवार से आते हैं. राघवेन्द्र दिव्यांग हैं, भारतमाता की जय बोलते हैं, वन्दे मातरम् बोलते समय पूरे जोश में होते हैं, गौमाता के रक्षक हैं और इस देश की संस्कृति, परम्परा और सनातन धर्म की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं. लेकिन

राघवेन्द्र आज पुलिस की लाठी से पीटे जाते हैं. जिस गाड़ी में लादकर पुलिस उन्हें ले जा रही होती है, उन्हें खुद भी नहीं पता कि उन्हें कहां ले जाया जा रहा है ? उसी चोट खायी हालत में वो गहरी पीड़ा से कहते हैं- क्या यही दिन देखने के लिए हमने भारतीय संस्कृति की रक्षा करनेवाली, किसानों,गरीबों, मजदूरों, स्त्रियों की बात करनेवाली पार्टी को वोट किया था ? हम जेएनयू के छात्र आखिर मांग क्या रहे हैं, चाह क्या रहे हैं ? ऐसी शिक्षा जिसमें कि इस देश का वो हर नागरिक पढ़ सके, बेहतर होने के सपने देख सके जिसके पास पैसे नहीं है, गरीब है..किसान, मजदूर के घरों से आता है. हम विवेकानंद बनना चाहते हैं लेकिन हमें रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरू, वीसी भी तो मिलें.

हम राम को अपना आदर्श माननेवाले लोग हैं, कृष्ण को पूजनेवाले लोग हैं. हम चाहते हैं कि भारत का नाम पूरी दुनिया में हो. इसकी संस्कृति का विस्तार पूरी दुनिया में हो लेकिन क्या राम के समय गुरूकुल की परंपरा नहीं होती, कृष्ण और सुदामा के लिए शिक्षा की सुविधा नहीं होती, मंहगी फीस होती तो वो ज्ञान हासिल कर पाते ? हमने वामपंथियों की लगातार आलोचना की, ऐसी पार्टी को वोट दिया जो भारतीय संस्कृति की बात करती है, परंपरा और इस देश की आत्मा को बचाने की बात करती है लेकिन क्या यह सब हम छात्रों को इस तरह पीटकर संभव हो सकेगा ? हम जैसी जिस आम जनता ने आपको वोट दिया, आज उसी को मार रहे हो, पीट रहे हो, उसकी आवाज़ को दबाया जा रहा है. क्या इसी तरीके से वो आगे शासन कर पाएंगे ?

पुलिस की लाठी से चोट खाए शिवेन्द्र बीच-बीच में कराहते हैं और गहरे क्षोभ और अफसोस से आगे भावावेश में बोलते चले जाते हैं. इस क्रम में वो लगातर अपने को भाजपा का, संघ का समर्थक बताते हैं. वो बताते हैं कि कैसे उनका सपना रहा है कि जेएनयू को फर्जी लोगों से मुक्त कराया जाय ? वो उस दिन के इंतजार में हैं जब भारत में व्यापक स्तर पर पारंपरिक शिक्षा पद्धति और गुरूकुल का विस्तार हो सकेगा…

राघवेन्द्र को मैंने यूट्यूब पर उस वक्त से फॉलो करना शुरू किया जब मीडिया में यह खबर आयी कि जेएनयू का एक छात्र हमेशा योगी आदित्यनाथ की गेटअप में कैंपस में घूमता है और इस बार यहां छात्रसंघ का चुनाव लड़ने जा रहा है. चुनाव में उनके नामांकन संबंधी कुछ विवाद भी हुए और मैंने उनका पूरा वक्तव्य सुना. उस वक्तव्य में मोटे तौर पर दो मूल बातें थीं- एक तो ये कि इस जेएनयू कैंपस को भारतीय संस्कृति, परंपरा, धर्मा और मान्यताओं से नफरत करनेवाले और टुकड़े-टुकड़े गैंग से मुक्त कराना है और दूसरा कि जो अधिकारी नकली इन्टलेक्चुअल बने फिरते हैं और हम जैसे दिव्यागों की आवाज को दबाना चाहते हैं, उनका हक़ मारना चाहते हैं, उनके आगे अपनी क्षमता साबित करनी है.

पूरे चुनाव और उसके बाद भी राघवेन्द्र अपने से अलग विचार रखनेवाले और प्रतिस्पर्धी पार्टियों के संबंध में जो कुछ भी बोलते आए, उसकी भाषा वैसी ही रही जैसी कि कारोबारी मीडिया के न्यूज एंकरों की, डीएनए( डेली न्यूज एनलिसिस ) करनेवाले विध्वंसक मीडियाकर्मियों की हुआ करती है. मैं शिवेन्द्र की भाषा से कभी सहमत नहीं हो सका. उसकी सोच से तो पहले ही दिन से सहमत नहीं था. लेकिन

आलोचना करने के क्रम में वो वामपंथियों पार्टियों को लेकर वो जिस तरह से हमलावर होते, मुझे वो अंदाज बहुत दिलचस्प लगता. कहने के ढंग के कारण मैं उन्हें लगातार सुनने लगा और बीच-बीच में मैंने महसूस किया कि दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थक होने के बावजूद इनके भीतर संस्थान को लेकर एक मोह है. सार्वजनिक संस्थान के बचे रहने की जरूरत को लेकर बेचैनी है. उनके लिए जेएनयू वो कुआं नहीं है जिसमें कि पूरे में भांग पड़ी हुई है. शिवेन्द्र की ये अंदाज सोशल मीडिया पर जेएनयू जैसे सार्वजनिक संस्थान के बारे में बिना जाने-सुने अनर्गल बातें करनेवाले लोगों से अलग लगा.

राघवेन्द्र मिश्र जिस तर्क, जज्ब़ात और कठोरता से दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थन में जेएनयू कैंपस में बने रहे हैं, आनेवाले समय में अपने को भाषा और जानकारी के स्तर पर थोड़े और परिष्कृत करते हैं तो मुख्यधारा की राजनीति में बेहतर करने की संभावना मौजूद हैं. आज जो लाठी उनके शरीर पर पड़ी है वो उनकी विचारधारा से अलग पार्टी की सरकार के दौरान पड़ती तो जबरदस्त भावनात्मक सहयोग और समर्थन मिलता और वो दक्षिणपंथी राजनीति के सितारे बनकर हमारे बीच उभरते. लेकिन

उन्हें ये लाठी उसी सरकार के दौरान पड़ी है जिनका कि वो समर्थन करते आए हैं. उनके भीतर इस बात का गहरा क्षोभ है कि क्या इसी दिन के लिए मैंने……

उपरी तौर पर देखें तो ये क्षोभ और सवाल जेएनयू के एक छात्र या समर्थक का लगता है लेकिन सोचने के दायरे का विस्तार करें तो यह हर उस नागरिक और उसकी नागरिकता को लेकर एक गहरी चिंता है कि क्या हम सुरक्षित हैं ? हम अपनी बात, अपने अंदाज में कहने भर से कुचल दिए जाएंगे ?

मैंने जी न्यूज पर उस एपिसोड की वीडियो क्लिप और एंकर सुधीर चौधरी की बातें बहुत गौर से देखी-सुनी. पत्रकारिता के नाम पर इस देश में वो जो कर रहे हैं, मुझे फिलहाल उस पर कुछ नहीं कहना है. इस मसले पर मैं उनसे जेएलएफ 2017 में परिचर्चा के दौरान कुछ सवाल कर चुका हूं. लेकिन वामपंथी राजनीति करनेवाले कुछ छात्रों ने चैनल की महिला रिपोर्टर के साथ जैसा व्यवहार किया, वो किए बिना भी प्रतिरोध दर्ज किए जा सकते थे ? फुटेज देखकर साफ लग रहा था कि चैनल, छात्रों को उकसाने की रणनीति पहले बनाकर कवरेज करने गया था और इससे पहले जिस तरह से लगातार नकारात्मक छवि गढ़ता आया है, उसका साफ असर छात्रों पर होगा. लेकिन

ये सारे संदर्भ, सारे प्रसंग इस सिरे से सोचने के लिए मजबूर करते हैं कि हम जहां भी और जिस भी हैसियत से बैठकर कारवाई कर रहे हैं, हमारी अपनी ही नागरिकता तेजी से ध्वस्त हो रही है. राघवेन्द्र जैसे छात्र की नागरिकता ध्वस्त हो रही है जो कि न केवल सुरक्षित बल्कि बहुत आगे तक जाने की योग्यता रखते हैं.

नागरिकता का दरकना, ध्वस्त होना, लोकतंत्र के उन सारे सवालों से जुड़ा है जिसमें पहले स्तर पर सत्ता और उसके समर्थन में हाजिरी लगाते कारोबारी मीडिया, कार्यकर्ता और समर्थक सुरक्षित नज़र आते हैं लेकिन नागरिकता के ध्वस्त होने की प्रक्रिया जैसे ही शुरू होती है, सारी पहचान धो-पोंछ दी जाती है और आधार सिर्फ यह होता है कि ऐसा परिवेश तैयार किया जाय जिसमें प्रत्येक नागरिक के भीतर संभावित गुनाहगार होने की आशंका घर करने लग जाय.

मेरे शुभचिंतक, मेरे दोस्त बीच-बीच में लगातार इस बात की सलाह देते हैं कि मौजूदा दौर में सिर्फ वही सुरक्षित है और वो लोग ही फल-फूल सकेंगे जो एक खास किस्म की विचारधारा के साथ हैं. तुम जैसे लोग जल्द ही हवा हो जाओगे. मैं उन्हें पलटकर बस इतना कह पाता हूं- इसका मतलब है, आज से छह साल पहले मुझे फलना-फूलना चाहिए था, मेरे ही दिन होने थे लेकिन ऐसा तो तब भी नहीं था. हम तो तब भी ऐसे ही रोज के संघर्षों के बीच जी रहे थे.

डियर, काश..विचारों के प्रति ईमानदारी और प्रतिबद्धता इतनी पाक होती कि कोई मुझसे मेरी विचारधारा की वजह से असहमत हो पाता. ऐसा होता तो कांग्रेसी, लिबरल का पट्टा लगाकर घूमनेवाले लोगों की आंखों की मैं किरकिरी न होता. मसला किसी एक विचारधारा के हावी होने भर का नहीं है. विचारधारा के नाम पर गैर पेशेवर और पढ़ने-लिखने की संस्कृति के खिलाफ लोगों के अतिसक्रिय हो जाने का भी है.
अब मैं ऐसे दोस्तों के आगे सवाल रखता हूं-

राघवेन्द्र जैसे लोग तो उसी खास विचारधारा के समर्थक हैं, कल भी चोट गुम हो जाने पर संभवतः साथ खड़े होंगे लेकिन क्या आज की शाम वो जब एक नागरिक के सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो खुद को आश्वस्त कर पाएंगे कि वो और उनकी नागरिकता सुरक्षित है ? उनके साथ आज जो हुआ, क्या उसमें गरीब के, किसान के, दिव्यांगों के और तो और दक्षिणपंथी विचारधारा का समर्थन करनेवाले स्वयंसेवकों, कार्यकर्ताओं के भरोसे के दरकने का काम नहीं हुआ ?

 

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